स्थानीयता नीति के नाम पर राज्य सरकार राजनीति ना करें
स्थानीयता नीति 1932 के खतियान के आधार पर नियोजन नीति न्यायालय भी ने खारिज कर दिया।
विजय केसरी
झारखंड प्रांत में स्थानीयता के नाम पर जो राजनीति हो रही है, इससे झारखंड के मूल वासियों के साथ एक तरह से खिलवाड़ ही हो रहा है । यह सर्वविदित है कि स्थानीयता के आधार पर नियुक्तियों को प्रतिबंधित करने के लिए कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संसद को है। जब विधि विभाग ने अपने नोट में यह लिख दिया कि विधेयक में संशोधन संविधान के अनुच्छेद 14,15 और 16 (2) में प्रदत्त मूल अधिकारों के विपरीत है। स्थानीयता के आधार पर नौकरियों को आरक्षित करने से संबंधित कानून बनाने का अधिकार सिर्फ पार्लियामेंट को है । राज्य की विधानसभा को नहीं है । इस बात को झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता सह मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन बखूबी जानते हैं । फिर बार-बार यह बील राज्यपाल के पास क्यों भेजा जा रहा है ?
स्थानीयता नीति 1932 के खतियान के आधार पर नियोजन नीति न्यायालय भी ने खारिज कर दिया। फिर भी यह बिल राज्यपाल के पास क्यों भेजा जा रहा हैं ? गत 2 फरवरी को झारखंड मुक्ति मोर्चा के दुमका में 44 वें झारखंड दिवस समारोह में 47 राजनीतिक प्रस्ताव पारित किए गए । मंच से इन 47 प्रस्ताव को पढ़ा गया । सभा में उपस्थित पार्टी के कार्यकर्ताओं ने इन 47 प्रस्तावों पर हाथ उठाकर अपनी स्वीकृति प्रदान की । अतः सार्वजनिक मंच से उक्त 4 7 प्रस्ताव पारित हो गए । जबकि राज्य में यूपीए की सरकार है । झारखंड मुक्ति मोर्चा यूपीए घटक दल का बड़ी पार्टी होने के कारण राज्य में उनकी पार्टी के नेता मुख्यमंत्री है। उस मंच पर राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन उपस्थित है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के संस्थापक शिबू सोरेन भी उपस्थित है । इन दोनों की उपस्थिति में इस तरह के प्रस्ताव पारित होते हैं । क्या इस प्रस्ताव को सरकारी प्रस्ताव माना जाए ? जबकि खुद हेमंत सोरेन एक संवैधानिक पद पर आसीन है ।उनकी उपस्थिति में इस तरह के प्रस्ताव पारित होते हैं । इस मंच से 1932 के आधार पर स्थानीयता नीति घोषित करने का प्रस्ताव पारित किया गया । जबकि झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन खुद मुख्यमंत्री है । वे प्रांत की सरकार की सबसे ऊंची कुर्सी पर बैठे हुए हैं । वे यह बात भली-भांति जानते हैं कि इस तरह के सार्वजनिक मंच से कोई भी प्रस्ताव पारित होते हैं, ये प्रस्ताव सरकारी हो नहीं सकते हैं । यह सिर्फ जनता को गुमराह करने के लिए किया जा रहा है। यह हो सकता है कि इस तरह के प्रस्ताव सरकार के पास विचारार्थ भेजा जा सकता है।
सर्वविदित है कि 1932 के खतियान पर आधारित स्थानीयता नीति झारखंड की वर्तमान सरकार ने 11 नवंबर को विधानसभा से बिल पास किया। इस बील में 6 -क जोड़ा गया । उसके बाद 4 दिसंबर को कार्मिक विभाग ने विधि विभाग को यह बिल भेज दिया। सात दिसंबर को विधि विभाग ने कार्मिक को इस राय के साथ भेज दिया। जिसमें विधि विभाग ने स्पष्ट कर दिया कि इस तरह के कानून बनाने का अधिकार विधान सभा को नहीं है ,बल्कि देश की पार्लियामेंट व संसद को है। जब विधि विभाग ने यह प्रस्ताव ने इस नोट के साथ भेज दिया गया तो फिर 11 – 12 दिसंबर को बिल स्वीकृति के लिए राज्यपाल के पास क्यों भेजा गया ? इस बात को बखूबी माननीय मुख्यमंत्री जानते हैं। उसके बाद भी उनकी सरकार ने यह बिल भेज दिया । 29 नवंबर को राजपाल ने बिना स्वीकृति के उक्त बिल को वापस भेज दिया।
इस बात को मुख्यमंत्री सहित कैबिनेट के मंत्री भली-भांति जानते थे कि यह बिल राजपाल स्वीकृत नहीं करेंगे। सिर्फ राजनीतिक माइलेज लेने के लिए झारखंड सरकार ने यह बिल राज्यपाल के पास भेजा। मुख्यमंत्री बार-बार राजपाल पर अंगुली उठा रहे हैं। अगर राजपाल बिल स्वीकृत कर झारखंड सरकार को भेज देते, तब क्या 1932 खतियान पर आधारित स्थानीय नीति घोषित हो जाती ? बिल्कुल घोषित नहीं होती । क्योंकि इस बिल पर विधि विभाग ने अपनी समीक्षा नोट में स्पष्ट कर दिया कि विधेयक में संशोधन संविधान के अनुच्छेद 14,15 और 16 (2) में प्रदत मूल अधिकारों से विपरीत है। स्थानीय नीति के आधार पर नौकरियों को आरक्षित करने से संबंधित कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संसद को है, ना कि राज्य के विधानसभा को । इससे यह परिलक्षित होता है कि मुख्यमंत्री यह चाहते हैं कि राज्य में एक राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बने। राजपाल को इसका मोहरा बनाया जा रहा है । एक तरह से देखा जाए तो यह झारखंड के मूल वासियों और गैर मूल वासियों के बीच वैमनस्यता फैलाने जैसा कार्य है। जब विधेयक पर विधि विभाग ने 7 दिसंबर को अपनी राय में कार्मिक विभाग को दिए अपनी राय में स्पष्ट कर दिया था। विधानसभा से यह बील 11 नवंबर को ही पारित हो चुका था । झारखंड सरकार ने स्थानीयता परिभाषित करने के लिए तैयार विधेयक झारखंड के स्थानीय व्यक्तियों की परिभाषा और परिणामी , सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य लाभों को ऐसे स्थानीय व्यक्तियों तक विस्तारित करने के लिए विधेयक 2022 कैबिनेट से पारित करने के बाद विधानसभा में पेश किया गया था। विधानसभा में इस विधेयक में संशोधन करते हुए एक प्रावधान 6 क जोड़ा गया। विधेयक के खंड -6 में यह जोड़ा गया कि राज्य में तृतीय एवं चतुर्थ वर्ग की नौकरियां स्थानीय लोगों को ही दी जाएगी । इस संशोधन के साथ विधेयक पारित होने के बाद इसे कार्मिक प्रशासनिक सुधार विभाग में लौटा दिया गया। इसके बाद कार्मिक विभाग ने विधेयक की समीक्षा के लिए विधि विभाग के पास भेजा । विधि विभाग ने संशोधित विधेयक की समीक्षा की और उसे असंवैधानिक करार दिया। विधि विभाग ने विधेयक को असंवैधानिक करार देने के लिए हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट और संविधान पीठ के फैसलों को उदाहरण के तौर पर पेश किया था। इन तमाम नोट के बाद भी मुख्यमंत्री सचिवालय ने यह बिल राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेजा । यह तो पूरी तरह असंवैधानिक है ।यह गैर कानूनी है । अब सवाल ये उठता है कि अगर 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीयता का बिल पास करना चाहते हैं, तो उससे संबंधित कानून सम्मत एक प्रपोजल बनाकर केंद्र सरकार को भेजा जाना चाहिए। झारखंड सरकार, केंद्र सरकार से यह मांग करती कि 1932 खतियान के आधार पर स्थानीयता नीति घोषित किया जाए । अब केंद्र सरकार पर यह निर्भर करता है कि स्थानीय नीति 1932 के आधार पर बनना चाहिए या नहीं । राज्य के मुख्यमंत्री अपनी मांग को पूरी मजबूती के साथ केंद्र सरकार के पास रखते। केंद्र सरकार के गृह विभाग इस पर विचार विमर्श कर अगर जरूरी समझती तब पार्लियामेंट से बिल पास कर 1932 खतियान आधारित स्थानीय नीति घोषित करती। यह एक संवैधानिक रास्ता होता। लेकिन ऐसा नहीं कर झारखंड सरकार असंवैधानिक तरीके से स्थानीय नीति पारित करना चाहती है । जो पूरी तरह असंवैधानिक है । मेरी दृष्टि में झारखंड सरकार सरकार को यह चाहिए कि जो कानून सम्मत स्थानीय नीति बन सकती है , उस दिशा पर विचार करना चाहिए। सरकार जो 1932 का रट लगाई हुई है, उस पर भी गंभीरता से विचार करना चाहिए। झारखंड सरकार को चाहिए कि झारखंड के बेरोजगार लोगों को रोजगार कैसे दें । झारखंड के जो मूल निवासियों को लाभ कैसे दें। इससे संबंधित कानून सम्मत बील बनाना चाहिए । ना कि ऐसा कोई असंवैधानिक कानून बना दीजिए, जिसका कोई लाभ झारखंड के स्थानीय लोगों को नहीं मिल पाए ।
सच अर्थों में झारखंड के स्थानीय लोगों के साथ स्थानीय नियोजन नीति पर एक तरफ से खिलवाड़ ही हो रहा है। 2000 में झारखंड अलग प्रांत अस्तित्व में आया था । बालू बाबूलाल मरांडी इस राज्य के मुख्यमंत्री बने थे । उन्होंने भी डोमिसाइल लागू किया था। जिसके विरोध में जबरदस्त हंगामा हुआ था । रांची में कर्फ्यू तक लग गया था। बाद में तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी सरकार को बिल वापस लेना पड़ा था। मैं राज्य के मुख्यमंत्री से यह मांग करना चाहता हूं कि अगर आप सच्चे मन से चाहते हैं कि स्थानीय नियोजन नीति के आधार पर झारखंड के मूल वासियों को नौकरियों में आरक्षण मिले । इससे संबंधित कोई कानून सम्मत स्थानीय नियोजन नीति तैयार करें ताकि मूल निवासियों को स्थानीयता नीति का लाभ मिल सके।